Mirza Ghalib Life Story
Mirza Ghalib / मिर्जा ग़ालिब ऐसे शायर थे , जो आज भी हर किसी के जुबान मैं उनका नाम है
ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण शायर, कवि के रूप में जाना जाता है। ग़ालिब नवाबी ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे और मुग़ल दरबार में उंचे ओहदे पर थे। ग़ालिब (असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। उन्होंने बहादुरशाह जाफर के काल में हुए 1857 का गदर बहुत ही करीबी से देखा। ग़ालिब शिया मुसलमान थे, पर मज़हब की भावनाओं में बहुत उदार एवं मित्रपराण स्वतंत्र चेता थे। जो आदमी एक बार इनसे मिलता था, उसे सदा इनसे मिलने की इच्छा बनी रहती थी। गलिब अपना हृदयग्राही व्यक्तित्व, मानव-प्रेम, सीधा स्पष्ट यथार्थ और इन सबसे अधिक, दार्शनिक दृष्टि लेकर साहित्य में आए।
शुरू में तो लोगों ने उनकी काल्पनिक शक्ति और मौलिकता की हंसी उड़ाई लेकिन बाद में उसे इतनी तेजी से बढ़ावा मिला कि शायरी की दुनिया का नजारा ही बदल गया। ग़ालिब आजीवन क़र्ज़ में डूबे रहे, लेकिन इन्होंने अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने दी। इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी। ग़ालिब ने अपने 70 साल के जीवन में कई शायरिया लिखी है। अपनी हर रचना वो मिर्ज़ा या ग़ालिब नाम से लिखते थे, इसलिए उनका ये नाम प्रसिद्ध हुआ।
मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1796 में आगरा के काला महल में हुआ थे। और उनके दादाजी, मिर्जा क़ोबान बेग खान एक सलजुक तुर्क थे जो अहमद शाह (1748-54) के शासनकाल के दौरान समरकंद (अब उजबेकिस्तान में) से भारत में आये थे उनके पिताजी मिर्जा अब्दुल्ला बेग खान ने लखनऊ के नवाब के यहाँ लाहौर, दिल्ली और जयपुर काम किया। और अंत में आगरा के काला महल में बस गए।
मिर्ज़ा ग़ालिब के पूर्वज तुर्क (मध्य एशिया) से थे, और उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग़ 1750 के आस पास भारत में आकर बसे थे। इसके बाद उन्होंने लाहौर, दिल्ली और जयपुर में काम किया। मिर्ज़ा क़ोबान बेग के दो पुत्र मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग़ ख़ान और मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग़ खान थे।
ग़ालिब की पृष्ठभूमि एक तुर्क परिवार से थी और इनके दादा मध्य एशिया के समरक़न्द से सन् १७५० के आसपास भारत आए थे। उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आये। उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गये। उनके दो पुत्र व तीन पुत्रियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान उनके दो पुत्र थे।
मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग (गालिब के पिता) ने इज़्ज़त-उत-निसा बेगम से निकाह किया और अपने ससुर के घर में रहने लगे। उन्होने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निज़ाम के यहाँ काम किया। मिर्जा गालिब के पिता का अलवर में 1803 में निधन हो गया और उन्हें राजगढ़ (अलवर, राजस्थान) में दफनाया गया। तब मिर्जा ग़ालिब 5 साल के थे। उन्हें उनके चाचा मिर्ज़ा नासरुल्ला बेग खान द्वारा गोद लिया गया और उन्हें बड़ा किया।
गालिब का लालन पालन जिस माहौल में हुआ वहां से उन्हें शायर बनने की प्रेरणा मिली। जिस मुहल्ले में गालिब रहते थे, वह (गुलाबखाना) उस जमाने में फारसी भाषा के शिक्षण का उच्च केन्द्र था। वहां मुल्ला वली मुहम्मद, उनके बेटे शम्सुल जुहा, मोहम्मद बदरुद्दिजा, आज़म अली तथा मौहम्मद कामिल वगैरा फारसी के एक-से-एक विद्वान वहां रहते थे।
ग़ालिब ने 11 वर्ष की आयु में उर्दू एवं फ़ारसी में गद्य तथा पद्य लिखना आरम्भ कर दिया था। लेकिन 25 साल की उम्र तक आते-आते वह बड़े शायर बन चुके थे। उन्होने अधिकतर फारसी और उर्दू में पारम्परिक भक्ति और सौन्दर्य रस पर रचनाये लिखी जो गजल में लिखी हुई है। उन्होंने फारसी और उर्दू दोनो में पारंपरिक गीत काव्य की रहस्यमय-रोमांटिक शैली में सबसे व्यापक रूप से लिखा और यह गजल के रूप में जाना जाता है।
उनकी पहली भाषा उर्दू थी, लेकिन घर पर फ़ारसी और तुर्की भी बोली जाती थी। उन्होंने एक युवा उम्र में फारसी और अरबी में अपनी शिक्षा प्राप्त की।
9 अगस्त, 1810 ई. को 13 वर्ष की आयु में उनका विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया था। उमराव बेगम 11 वर्ष की थीं। इस तरह लोहारू राजवंश से इनका सम्बन्ध और दृढ़ हो गया। पहले भी वह बीच-बीच में दिल्ली जाते रहते थे, पर शादी के 2-3 वर्ष बाद तो दिल्ली के ही हो गए। अपने पेंशन के सिलसिले में उन्हें कोलकाता कि लम्बी यात्रा भी करनी पड़ी थी, जिसका ज़िक्र उनकी ग़ज़लों में जगह–जगह पर मिलता है।
ग़ालिब का जीवनयापन मूलत: अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था (वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्य अधिकारी थे)। मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है। यद्दपि इससे पहले के वर्षो में मीर तक़ी "मीर" भी इसी वजह से जाने जाता है। ग़ालिब के लिखे पत्र, जो उस समय प्रकाशित नहीं हुए थे, को भी उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है।
१८५० में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा। बाद में उन्हे मिर्ज़ा नोशा का खिताब भी मिला। वे शहंशाह के दरबार में एक महत्वपूर्ण दरबारी थे। उन्हे बहादुर शाह ज़फर द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय में मुगल दरबार के शाही इतिहासविद भी थे।
अभी हाल ही में गूगल ने गूगल डूडल से सन्मान दिया है |
ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है। उन्होने अपने बारे में स्वयं लिखा था कि दुनिया में यूं तो बहुत से अच्छे कवि-शायर हैं, लेकिन उनकी शैली सबसे निराली है:
उर्दू और फ़ारसी भाषा के महान शायर मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग़ ख़ां उर्फ “ग़ालिब” मुग़ल साम्राज्य के अंतिम शासक बहादुर शाह ज़फ़र के समकालीन और दरबारी कवि थे। उन्होंने फ़ारसी कविता को उर्दू में रूपांतरित कर अपनी विशेष पहचान बनाई। उनकी कई रचनाएं जो प्रकाशित नहीं हो पाई थीं, उन्हें आज भी उर्दू भाषा का प्रमुख दस्तावेज़ माना जाता है।
“हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”
उनकी रचनाओं को महान ग़ज़ल गायक जगजीत सिहं ने गाकर एक नई पहचान दी।
मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी रचनाओं के बारे में कहते थे कि भले ही दुनिया में अनेकों शायर है लेकिन उनकी शायरी सबसे निराली है। जिसे उन्होंने ग़ज़ल का भी रूप दिया था। ग़ालिब अपनी रचना में कहते हैं।
“हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”
15 फरवरी 1869 को मिर्ज़ा ग़ालिब का निधन हो गया था। उनकी जीवन पर एक टीवी सीरीज़ बनी थी जो दूरदर्शन के नेशनल चैनल पर 1988 में ऑन एयर हुई थी। जिसमें मिर्ज़ा ग़ालिब की भूमिका नसीरुद्दीन शाह ने निभाई थी।
हालांकि ग़ालिब की फारसी में अपनी कविताओं की उपलब्धि के काफी बड़ी थी, लेकिन आज वह उर्दू गज़लों के लिए और अधिक प्रसिद्ध हैं।ग़ालिब ने जीवन के रहस्यों को अपने गज़लों के माध्यम से प्रस्तुत किया और कई अन्य विषयों पर गज़ल लिखी, गज़ल के दायरे का विस्तार करते हुए इस काम को उर्दू कविता और साहित्य में उनका सर्वोच्च योगदान माना जाता है।
मिर्जा गालिब उर्दू और फारसी कविता के आसमान में चमकता हुआ तारा है। जिन्हें हम आज भी दिल से याद करते हैं।
मिर्ज़ा ग़ालिब की मुख्य रचनाओ मैं दीवान -ए -ग़ालिब , उर्दू -ए -हिंदी, उर्दू -ए -मुअल्ला , नाम -ए -गालिब , लातायफे गैबी , दुवापशे कावेयानी शामिल है| ग़ालिब ने अपनी रचनाओं में सरल शब्दों का प्रयोग किया है। उर्दू गद्य-लेखन की नींव रखने के कारण इन्हें वर्तमान उर्दू गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है। फ़ारसी के कुलियात में फ़ारसी कविताओं का संग्रह हैं। उनकी ख़ूबसूरत शायरी का संग्रह ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ के रूप में 10 भागों में प्रकाशित हुआ है। जिसका अनेक स्वदेशी तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
दिल-ए -नादाँ तुझे हुआ क्या है
दिल-ए -नादाँ तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
हम है मुश्ताक़ और वो बे -जार
या इलाही ये माजरा क्या है
मैं भी मुँह मैं जबान रखता हूँ
काश पूछो की मुद्दआ' क्या है
जब की तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है
ये परी-चेहरा लोग कैसे है
गम्जा ओ ईश्वा ओ अदा क्या है
शिकन -ऐ -जुल्फ़ -ऐ -अम्बरी क्यूँ है
निगह -ए - चश्म -ए -सुरमा सा क्या है
सब्जा ओ गुल कहाँ से आए है
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या` है
हम को उन से वफ़ा की`उम्मीद है
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
हाँ भला कर तिरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
मैंने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब '
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
उठा ज़ालिम..!!!
कहीं ऐसा न हो जहाँ भी
वही काफिर सनम निकले
Patta Patta Boota Boota Haal Hamara Jaane Hai
Ye Deewane Do char nazar aate hai
Chupke Chupke Raat Din Aasu Bahana Yaad Hai
TAGS: मिर्जा ग़ालिब, दिल-ए -नादाँ तुझे हुआ क्या है
Kaagaz ka Libaas
सब ने पहना था बड़े शौक से कागज़ का लिबास
जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले
अदल के तुम न हमे आस दिलाओ
क़त्ल हो जाते हैं , ज़ंज़ीर हिलाने वाले
जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले
अदल के तुम न हमे आस दिलाओ
क़त्ल हो जाते हैं , ज़ंज़ीर हिलाने वाले
Khooda ke Vaaste
खुदा के वास्ते पर्दा न रुख्सार सेउठा ज़ालिम..!!!
कहीं ऐसा न हो जहाँ भी
वही काफिर सनम निकले
Patta Patta Boota Boota Haal Hamara Jaane Hai
Ye Deewane Do char nazar aate hai
Chupke Chupke Raat Din Aasu Bahana Yaad Hai
TAGS: मिर्जा ग़ालिब, दिल-ए -नादाँ तुझे हुआ क्या है
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